Monday, 13 October 2014

ये कविता एक लड़के के प्यार के प्राइमरी स्टेज को शब्दों में पिरोने की कोशिश है दोस्तों ये उसी समय की मन की कश्मकश है जब लड़का ये निर्धारित करने में असमर्थ है की वो प्यार से गुजर रहा है या आकर्षण से…
पता नहीं ये प्यार है या आकर्षण है ,
पर हे इस धरा के ईश मेरे अवनीश अब जो मैं  नही चाहता वो कुछ और नहीं बस  प्रतिकर्षण है ,
जीत लूँगा इस ह्रदय को अब इसी मै आश में ,
चल पड़ा है ये पथिक भी अब इसी विश्वास में ,
पहली बार इस कवि के जीवन में शब्दों  का अभाव है ,
शब्द नहीं बरस पा रहे क्योंकि मेरे ऊपर तेरे जुल्फों की छांव है ।

1 comment: