Monday 8 September 2014

ये कविता हमारे उन भाईयो एवं बहनो  को समर्पित है जिनके प्यार में समाज की जातीय  व्यवस्था समस्या बनी  हुई है , वो कितनी  घुटन महसूस करते हैं इन बंधनो में जकड़े रहकर और क्या चाहते हैं ये कविता उन सभी  पिरोने की कोशिश है   , वो बंधन जिन्हें हमारे समाज ने  बनाया है और अपने ही लोगों का  सुख छीन लिया है ।

ख्यालों से तेरे मैं  अब कभी न दूर हो पता  ,
न तेरे पास जा सकता ,
न तुझसे दूर हो पाता । 
                                            ज़माने के बंधनो ने मुझे अब बांध रखा है , 
                                            न जाने क्यों ज़माने ने इन्हे अब तक सजोया है  ।   
                                            कसम मै   तेरी खता  हूँ इन्हे अब तोड़ दूंगा मैं , 
                                            रिवाजों के नए अब से सृजन तो कर  ही दूंगा मैं ।
धरा ये छोड़ दूंगा मैं जो तू  अब न मिली मुझको ,
जमाना छोड़ दूंगा मै  जो फिर ये हँस पड़े मुझ पर ।  
इन कुरीतियों को बनाने वालों धरा के मूर्खों  सुन लो ,
हमारे नौजवानों की जो तुमने आह लूटी है ,
ईश्वर के पास आकर वो अपना बदला निकालेंगे ।
                                             समर्थन तो ईश्वर  का भी  हासिल हमें होगा ,
                                              क्योकि ,
                                             मोहब्बत की इस प्रथा की नींव मेरे कान्हा ने रखी थी ।

Thursday 4 September 2014

अरज़ किया है ,
जब तम  का प्रकोप गहरा हो तब प्रकाश का इंतज़ार किया जाता है ,
प्रहार सिर्फ गर्म लोहे पर ही किया जाता है ,

क्योंकि दोस्तों
हर लड़ाई जीतने के लिए वक़्त की नज़ाक़त का सार समझा  जाता है ।...