ये कविता हमारे उन भाईयो एवं बहनो को समर्पित है जिनके प्यार में समाज की जातीय व्यवस्था समस्या बनी हुई है , वो कितनी घुटन महसूस करते हैं इन बंधनो में जकड़े रहकर और क्या चाहते हैं ये कविता उन सभी पिरोने की कोशिश है , वो बंधन जिन्हें हमारे समाज ने बनाया है और अपने ही लोगों का सुख छीन लिया है ।
ख्यालों से तेरे मैं अब कभी न दूर हो पता ,
न तेरे पास जा सकता ,
न तुझसे दूर हो पाता ।
ज़माने के बंधनो ने मुझे अब बांध रखा है ,
न जाने क्यों ज़माने ने इन्हे अब तक सजोया है ।
कसम मै तेरी खता हूँ इन्हे अब तोड़ दूंगा मैं ,
रिवाजों के नए अब से सृजन तो कर ही दूंगा मैं ।
धरा ये छोड़ दूंगा मैं जो तू अब न मिली मुझको ,
जमाना छोड़ दूंगा मै जो फिर ये हँस पड़े मुझ पर ।
इन कुरीतियों को बनाने वालों धरा के मूर्खों सुन लो ,
हमारे नौजवानों की जो तुमने आह लूटी है ,
ईश्वर के पास आकर वो अपना बदला निकालेंगे ।
समर्थन तो ईश्वर का भी हासिल हमें होगा ,
क्योकि ,
मोहब्बत की इस प्रथा की नींव मेरे कान्हा ने रखी थी ।