अंगड़ाइयां लेकर मैं सो जब जाता था ,
तेरे जगाने से रजाई की पकड़ और मजबूत बनाता था ,
पर तेरा रजाई को प्यार से हटाना ,
और हाथों से सहलाकर ,रजाई की गर्मी को भुला देना ,
अब बहुत याद आता है ,
फिर मैं जग जाता था ,तेरे हाथों से मिली ,
गर्मी को लेकर लग जाता था ,
दिन गुजर जाते हैं अब तो ,
इस मस्तक को उगते सूर्य की किरणों आलिंगन किये हुए ।
बहुत कुछ बदल गया है , बहुत शोर भी हो चूका जिंदगी में ,
शायद खुद को सुन पाना बहुत मुश्किल है ,
और वो पन्नों के सामने ही कलम के साथ ही संभव है ,
पर तू शांत है अपनी उसी स्थिर जिंदगी के साथ ,
बिना सवाल किये जो एक तरीके से वरसों से अपने को दोहराती चली आई है ।