Sunday 31 January 2016

एक अभिशाप हूँ मैं

एक अभिशाप हूँ मैं , पर अस्तित्व है मेरा ,
सो  मैं बरसता हूँ दुनिया पर ,अभिशाप बनकर ही ,
कभी इस पर तो कभी उस पर ,
पर ये दुनिया भी अजीब है ,
मैं जब सामने वाले पे बरस रहा था ,
तब बगल वाला शांत  था ,
लेकिन जब बगल वाले पर बरसा तो ,
बोलने क लिए सामने वाला नहीं रहा था ,
पर क्या करूँ मुझे रहना है इसी दुनिया में ,
क्योंकि किसी को आस भी है इसी अभिशाप से ,
किसी का आशीर्वाद भी है इसी अभिशाप को ,
आशीर्वाद से ही अभिशाप ज़िंदा रहा है ,
ये प्रथा रही है शायद आदिकाल से ही ,
सो मैं बरसूँगा कभी इस पर तो कभी उसपर ,
और शायद बरसता  ही रहूंगा कभी इस पर कभी उसपर ,
बरसूँगा मैं छितिज को भेदने की कोशिश करते हुए ,
लहर की तरह शांति को चीरते हुए ,
उठता हूँ गिरता हूँ और फिर सागर में मिल जाता हूँ ,
पर अब लत लग चुकी है सो मैं गिरकर फिर उठूंगा ,
टूट भी सकता हूँ बिखर भी सकता हूँ पर मैं  बरसूँगा ,
क्योंकि एक अभिशाप हूँ मैं जो मुझमे  ही है ,
महान बनता दिखता हूँ मैं दुनिया को मैं ,
पर मुझे महान नहीं बनना है , न ही कोई ऊंचा नाम बनना है ,
बस मुझे इसी लत क साथ मरना है ,
अब मस्त हूँ मई इस टूटने बिखरने के खेल में ,
लहर की तरह शांति को चीरते हुए ,
उठते हुए गिरते हुए  और फिर सागर में मिलते हुए ,
अब ये तो सुनिश्चित करता हूँ ,
मुझे इसी लत के साथ मरना  है  !!!





2 comments:

  1. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

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