Wednesday, 7 October 2015

पूछता है जमाना क्यूँ ?

पूछता है  जमाना क्यूँ ...
की करना चाहते  हो क्या ?
बस ये बता दे तू कि
तेरी मंजिलें हैं क्या ?
बता दे की तू रोज मंजिलों में ,
इतनी टकटकी से देखता है क्या ?
मै  कहता तब ज़माने से ,
मेरी मंजिलें है जो  ,तुम छोड़ दो उनको  ,
तुम न  देख पाओगे , न तुम सोच पाओगे ,
वक़्त पर छोड़ दो इसको ,खुद ही तुम जान जाओगे ,
पूछता है ज़माना फिर की आखिर  चाहते हो क्या ?
तो सुनो की मै चाहता हूँ क्या ...
मै चाहता बादलों को चीरना ,आसमां को भेदना ,
हवाओं पर भी मै अपना अधिकार ही चाहूँ   ,
मन ही मन इस धरा पर राज राजता ,विजय रथ पर चढ़ा बैठा ,
लोक तीनो ही  मै जीतना चाहता ,
दुनिया के हर छोर पर ही नाम अपना  ही चाहता ,
फिर से पूछता है ये जमाना ,ज़रा फिर से बताना ???
क्या कहूँ अब मै ,बस यही  है कहने को ,
तुम न  देख पाओगे , न तुम सोच पाओगे ,
वक़्त पर छोड़ दो इसको ,खुद ही तुम जान जाओगे






Tuesday, 11 August 2015

मेरी अभिलाषा

पाना चाहूँ मै  तुम्हे फिर से पाकर ,
बताना चाहूँ मै  तुम्हे सब अंधेरो से रौशनी में लाकर ,
रखना  नहीं  चाहूँ मै तुम्हे दुनिया की नज़रों से छुपाकर  ,
चाहना चाहूँ मै तुझे बताकर यही अभिलाषा है ,
तू मान जायेगी या नहीं बस इसी बात की जिज्ञासा है ,
खो न दूँ तुम्हे ऐसा कर के बस इसी बात की निराशा  है ,
खुश  तो इसलिए हूँ की तुम सायानी खुद ही समझोगी बस  इसी बात की आशा है ।