Wednesday, 10 August 2016

तेरा हौसला  खो देना कभी ज़चा  नहीं है ज़माने को , शायद तरस खाकर ....
पर तेरा  हौसला  देखना भी कभी ज़चा नहीं है ज़माने को , शायद घबराकर ....... ।

Saturday, 7 May 2016

सुबह का जगाना

mothersday special याद आती है वो सुबह जब तुम मुझे जगाती थी ,
अंगड़ाइयां लेकर मैं  सो जब जाता था ,
तेरे जगाने से रजाई की पकड़ और मजबूत बनाता था ,
पर तेरा रजाई को प्यार से हटाना ,
और हाथों से सहलाकर ,रजाई की गर्मी को भुला देना ,
अब बहुत याद आता है ,
फिर मैं  जग जाता था ,तेरे हाथों  से मिली ,
 गर्मी को लेकर लग जाता था ,
दिन गुजर जाते हैं अब तो ,
इस मस्तक को उगते सूर्य की किरणों  आलिंगन किये हुए ।
बहुत कुछ बदल गया है  , बहुत शोर भी हो चूका जिंदगी में ,
शायद खुद को सुन पाना बहुत मुश्किल है ,
और वो पन्नों  के सामने ही कलम   के साथ  ही संभव है ,
पर तू शांत  है अपनी उसी स्थिर जिंदगी के साथ ,
बिना सवाल किये जो एक तरीके से वरसों से अपने को दोहराती चली आई है ।


Sunday, 31 January 2016

एक अभिशाप हूँ मैं

एक अभिशाप हूँ मैं , पर अस्तित्व है मेरा ,
सो  मैं बरसता हूँ दुनिया पर ,अभिशाप बनकर ही ,
कभी इस पर तो कभी उस पर ,
पर ये दुनिया भी अजीब है ,
मैं जब सामने वाले पे बरस रहा था ,
तब बगल वाला शांत  था ,
लेकिन जब बगल वाले पर बरसा तो ,
बोलने क लिए सामने वाला नहीं रहा था ,
पर क्या करूँ मुझे रहना है इसी दुनिया में ,
क्योंकि किसी को आस भी है इसी अभिशाप से ,
किसी का आशीर्वाद भी है इसी अभिशाप को ,
आशीर्वाद से ही अभिशाप ज़िंदा रहा है ,
ये प्रथा रही है शायद आदिकाल से ही ,
सो मैं बरसूँगा कभी इस पर तो कभी उसपर ,
और शायद बरसता  ही रहूंगा कभी इस पर कभी उसपर ,
बरसूँगा मैं छितिज को भेदने की कोशिश करते हुए ,
लहर की तरह शांति को चीरते हुए ,
उठता हूँ गिरता हूँ और फिर सागर में मिल जाता हूँ ,
पर अब लत लग चुकी है सो मैं गिरकर फिर उठूंगा ,
टूट भी सकता हूँ बिखर भी सकता हूँ पर मैं  बरसूँगा ,
क्योंकि एक अभिशाप हूँ मैं जो मुझमे  ही है ,
महान बनता दिखता हूँ मैं दुनिया को मैं ,
पर मुझे महान नहीं बनना है , न ही कोई ऊंचा नाम बनना है ,
बस मुझे इसी लत क साथ मरना है ,
अब मस्त हूँ मई इस टूटने बिखरने के खेल में ,
लहर की तरह शांति को चीरते हुए ,
उठते हुए गिरते हुए  और फिर सागर में मिलते हुए ,
अब ये तो सुनिश्चित करता हूँ ,
मुझे इसी लत के साथ मरना  है  !!!





Wednesday, 7 October 2015

पूछता है जमाना क्यूँ ?

पूछता है  जमाना क्यूँ ...
की करना चाहते  हो क्या ?
बस ये बता दे तू कि
तेरी मंजिलें हैं क्या ?
बता दे की तू रोज मंजिलों में ,
इतनी टकटकी से देखता है क्या ?
मै  कहता तब ज़माने से ,
मेरी मंजिलें है जो  ,तुम छोड़ दो उनको  ,
तुम न  देख पाओगे , न तुम सोच पाओगे ,
वक़्त पर छोड़ दो इसको ,खुद ही तुम जान जाओगे ,
पूछता है ज़माना फिर की आखिर  चाहते हो क्या ?
तो सुनो की मै चाहता हूँ क्या ...
मै चाहता बादलों को चीरना ,आसमां को भेदना ,
हवाओं पर भी मै अपना अधिकार ही चाहूँ   ,
मन ही मन इस धरा पर राज राजता ,विजय रथ पर चढ़ा बैठा ,
लोक तीनो ही  मै जीतना चाहता ,
दुनिया के हर छोर पर ही नाम अपना  ही चाहता ,
फिर से पूछता है ये जमाना ,ज़रा फिर से बताना ???
क्या कहूँ अब मै ,बस यही  है कहने को ,
तुम न  देख पाओगे , न तुम सोच पाओगे ,
वक़्त पर छोड़ दो इसको ,खुद ही तुम जान जाओगे






Tuesday, 11 August 2015

मेरी अभिलाषा

पाना चाहूँ मै  तुम्हे फिर से पाकर ,
बताना चाहूँ मै  तुम्हे सब अंधेरो से रौशनी में लाकर ,
रखना  नहीं  चाहूँ मै तुम्हे दुनिया की नज़रों से छुपाकर  ,
चाहना चाहूँ मै तुझे बताकर यही अभिलाषा है ,
तू मान जायेगी या नहीं बस इसी बात की जिज्ञासा है ,
खो न दूँ तुम्हे ऐसा कर के बस इसी बात की निराशा  है ,
खुश  तो इसलिए हूँ की तुम सायानी खुद ही समझोगी बस  इसी बात की आशा है ।

Friday, 14 November 2014

बेवकूफी हम करते हैं और बदनाम प्यार होता है , कुछ लोग इन्ही तरीके के कारणों से खुदकुशी कर लेते हैं जिस चीज को मैंने बहुत करीब से महसूस किया है क्योंकि हमारे बीच का ही कोई इस दौर से करीब एक पहले गुज़रा था ,ये कविता का जन्म ऐसी ही कुछ घटनाओं का परिणाम मात्र है ।
जब बच्चा स्कुली जिंदगी से निकलता है और उसे किसी के प्रति आकर्षण या प्यार होता है ,तो किस तरह  से स्थिति बदलती होगी की बच्चा ये सब करने पे मजबूर होता है ये कविता उसी चीज का विश्लेषण करने की कोसिस करेगी और अंत में कवि ने अपनी राय भी रखी है ।                              

                             मेरा आह्वान 

                                      चरण  १ 

वो पुष्पों सी नाज़ुक ,
वो शबनम सी सुन्दर ।
वो उतरी इस धरा पे ,
देवी का रूप धरकर  ।।
                         पहली नज़र जब मई तुझे देख पाया ,
                         खुद को ख्यालों में डूबा सा पाया।
                         तेरे ही ख्यालों में मैंने गोता लगाया ,
                         कसम ये खुदा की मै बहार ही आ न पाया।।
 तेरे जुल्फों क पीछे से मुखड़े का दिखना ,
लगता है चंदा क पीछे यूँ बादलों का छुपना  ।
कुछ छोटी सी बातों पे तेरा रूठ जाना।,
लगता है चंदा पे कजरी का छाना ।.।
                                           शाखों ने तस्वीर बनाई आँखों में ,
                                           सुंदरकोई चीज तो तू ही दखती है ।
                                           मेरी नज़रों पे तू कुछ यूं छाई सी रहती है ,
                                           कहानी कुछ कुमुदिनी पे भ्रमर के मचलने सी लगती है ।


                                            चरण २                                                  


सब बंधनों को तोड़ कर ,
अब रुख हवा का मोड़ कर।
चलहम बसें दुनिया के एक छोर पर ,
सपनों का एक घर जोड़कर  ।.।
                                          संभव नहीं हम दो ग्रहों का मेल ,
                                          नहीं है कोई ये मामूली सा खेल ।
                                          छोड़  दे  ये  आस  अब   ।
                                           नहीं है तुझ पे भी विश्वास अब  ।.।
दर्दका ये प्याला न पिया जा रहा ,
अब कोई भी हल इस्पे न भा रहा ।
अब इस धरा क को त्याग दूंगा ,
इस जां को तुझ पर वार दूंगा। ।.।



                                                चरण ३ (कवि की राय )                                          


                                         इश्क़ की इस राह में ,एक सुंदरी की चाह में,
                                         दर-दर भटकता तू फिरा ,दुनिया की नज़रों मे गिरा ।
                                          तू समझ बैठा राधा को मिल गया है कृष्णा ,
                                          पर  ठहरी  वो   तेरी   मृगतृष्णा   ।. ।
आँखों की पट्टी खोलकर ,
दुनिया को ढंग से देखकर,
दे दे चुनौती वहीं डंके की चोटपर ,
मै वापस जर्रोर ही आऊंगा ,
प्रियतम तुझको मई ही लेकर जाऊंगा। 
स्थापित हर गलत विचार को विस्थापित कर के ही जाऊँगा। ।।
                                                                      कमजोरी मत साबित करना ,
                                                                      नज़ीर ही गलत मत स्थापित करना ।
                                                                      आह्वान करता हूँ तुम्ही से विराम देता हूँ यहीं पे  ।.।

Thursday, 16 October 2014

एक बंधे समां को छोड़ आज ,
नया समां बाँधने  हम चले ,
ये भूल है दुनिया वालों की
की समां बांधना   मुस्किल है  ।
हम मतवाले और मस्ताने जहाँ कहीं भी होते हैं
सच बोलूं तो सही यही है बस दरकार  हमारी होती है ,
और समां वहीँ बन जाता है।
हर क्लेश वहां से मिटता  है ,
दीप  ख़ुशी का वहीँ देदीप्यमान हो जाता है। .
एक  नया जोश , और नया जूनून ,
एक नयी उमंग और नया रंग ,
लोगों में फिर से सजती है ,
हर मृतक भी फिर से जगता है ,
मुरझे फूल दोबारा खिलते हैं ,
ये बस्ती फिर से हंसती है ,
हम मतवाले और मस्ताने जहाँ कहीं भी होते हैं ,
बस समां वहीँ बांध जाता है।